11 नवंबर 2025 को 06:17 pm बजे
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गौरवशाली क्रांतिकारी विरासत को संजोकर रखेंगे

क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा, फरीदाबाद

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह और ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA)’ के कमांडर-इन-चीफ, अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद के साथी, संगठन के ज़िम्मेदार सदस्य तथा ‘नौजवान भारत सभा’ के दूसरे महासचिव क्रांति कुमार का जन्म अविभाजित पंजाब में, लाहौर के निकट 4 मार्च 1894 को हुआ। उनका पैदाइशी नाम हंसराज शर्मा था। वे क्रांति कुमार कैसे बने, यह भी एक बेहद रोचक कहानी है।

‘एचएसआरए’ में कई बेमिसाल शूरवीर क्रांतिकारी थे, लेकिन संगठन के तीन सदस्य—हंसराज वोहरा, फोनिन्द्र नाथ घोष और जयभगवान—गद्दार साबित हुए। हंसराज वोहरा अंग्रेज़ पुलिस का सरकारी गवाह बन गया और अदालत में वही बयान दिया जो पुलिस ने सिखाया था। ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ (सॉन्डर्स हत्या मामला) में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी इसी गवाही के आधार पर हुई। बाद में अंग्रेज़ों ने उसे न केवल बरी किया, बल्कि ‘लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स’ में पढ़ने भेजा। लंदन से लौटकर उसने पत्रकारिता शुरू की, लेकिन उसकी करतूत जानने वाले उसे लानत भेजते। अंततः वह अमेरिका भाग गया और वहीं 13 सितंबर 1985 को उसकी मृत्यु हुई। मरने से पहले उसने सुखदेव के भाई को पत्र लिखकर माफी भी मांगी।

‘हंसराज’ नाम संगठन में इतना घृणित हो गया था कि भगत सिंह और उनके साथी इसे सुनना भी नहीं चाहते थे। हालांकि भगत सिंह गंभीर विचारक और लेखक थे, लेकिन साथियों के बीच उनका स्वभाव हँसमुख और मज़ाकिया था। उन्हें रसगुल्ले बेहद प्रिय थे। हंसराज ने जेल में भी उनके लिए रसगुल्ले की व्यवस्था की थी, इसलिए भगत सिंह ने उन्हें ‘रसगुल्ला कुमार’ कहा। कुछ समय वे ‘टिफिन कुमार’ भी कहलाए। उनके समर्पण, बहादुरी और क्रांति के दृढ़ निश्चय को देखते हुए साथियों ने उन्हें ‘क्रांति कुमार’ नाम दिया। इस तरह हंसराज शर्मा बन गए क्रांति कुमार।

उनका राजनीतिक जीवन 1922 में गांधी जी के असहयोग आंदोलन से शुरू हुआ। एक ज़िम्मेदार कार्यकर्ता होने के कारण वे उस आंदोलन में भी जेल गए। 1926 में सुखदेव और भगत सिंह के संपर्क में आए और जीवन को क्रांतिकारी आंदोलन को समर्पित कर दिया। ‘नौजवान भारत सभा’ के सदस्य और फिर महासचिव बने। उस दौर में संगठन के गोपनीय दस्तावेज़, दिशा-निर्देश और अन्य सामग्री को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाना सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती थी, जिसे केवल सबसे भरोसेमंद, निडर और बुद्धिमान व्यक्ति को सौंपा जाता था। यह जिम्मेदारी क्रांति कुमार को दी गई, जिसे उन्होंने शानदार ढंग से निभाया। ‘लाहौर सेंट्रल जेल में पिस्तौल और गोलियाँ पहुँचाने’ के आरोप में वे गिरफ्तार हुए और गुरदासपुर जेल में बंद रहे। उन्होंने कुल 13.5 वर्ष जेल में बिताए।

1931 में चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत के बाद ‘एचएसआरए’ बिखर गया। देशव्यापी वैचारिक और सांगठनिक विस्तार की कमी के कारण ऐसा हुआ। भगत सिंह भी यह बात समझ चुके थे, लेकिन तब तक वे बहुत आगे निकल चुके थे। क्रांति कुमार उन चुनिंदा सदस्यों में थे जिन्होंने संगठन के विघटन के बाद भी मिशन को जारी रखा। वे कांग्रेस में शामिल हुए और पत्रकारिता के माध्यम से जनजागरण की जिम्मेदारी निभाते रहे।

1942 में ‘करो या मरो’ की हुंकार के साथ ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ शुरू हुआ—इतिहास का सबसे व्यापक और आक्रामक जन आंदोलन। क्रांति कुमार इसमें सक्रिय रूप से शामिल हुए, गिरफ्तार हुए और 15 अगस्त 1947 के बाद ही जेल से रिहा हुए। विभाजन के बाद लाहौर, जो क्रांतिकारी गतिविधियों का गढ़ था, पाकिस्तान चला गया। क्रांति कुमार दिल्ली आ गए और पुराने किले के पास शरणार्थी कैंप में रहे। बाद में 1960 में पानीपत चले गए।

आज़ाद भारत में क्रांतिकारियों के साथ अंग्रेज़ भारत जैसा ही व्यवहार क्यों? भारत सरकार के 2025–26 के ‘स्वतंत्रता सैनिक सम्मान पेंशन योजना’ का बजट ₹3274.87 करोड़ है। अब तक 1,71,689 लोग इस योजना के तहत पेंशन ले चुके हैं। आज भी 13,912 स्वतंत्रता सेनानी और 9,778 उनके जीवन साथी यह पेंशन ले रहे हैं। लेकिन क्रांति कुमार जैसे क्रांतिकारियों को यह सम्मान क्यों नहीं मिला? बटुकेश्वर दत्त को पटना की सड़कों पर साइकिल से बिस्किट बेचने को क्यों मजबूर होना पड़ा? क्रांति कुमार के बेटे विनय कुमार को पानीपत के ढाबे पर बर्तन क्यों मांजने पड़े? क्या यह न्याय है?

15 मार्च 1966: पानीपत में क्रांति कुमार की शहादत 1966 में पंजाब के भाषाई विभाजन के आंदोलन के दौरान हिंदू-सिख वैमनस्य फैलाया गया। जनसंघ ने विघटनकारी एजेंडे पर काम किया और कई शहरों में दंगे भड़काए। पानीपत में एक भड़काऊ रैली निकाली गई, जिसमें क्रांति कुमार, दीवान चंद ठक्कर और सतनाम लांबा को निशाना बनाया गया। वे रामलाल चौक की एक साइकिल दुकान में बैठे थे। उन्मादी भीड़ ने दुकान में आग लगा दी। दुकान में टायरों का स्टॉक था, जिससे आग और भड़क गई। तीनों साथी अंदर ही थे। बाद में उनकी जली हुई लाशें मिलीं। वे जलकर नहीं मरे, उन्हें मारकर जलाया गया।

सम्मान की पहल: दीदी उर्वशी शर्मा होंगी मुख्य अतिथि क्रांति कुमार की सुपुत्री उर्वशी शर्मा से ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा’ की टीम ने मुलाकात की। 85 वर्षीय दीदी ने अपने पिता की स्मृतियाँ साझा कीं—उनकी पत्रकारिता, संघर्ष, और शहादत की कहानी। उन्होंने कहा, “अंग्रेज़ों से तो आज़ादी मिल गई, लेकिन अब अमीर-गरीब की खाई बहुत चौड़ी है। यह एक अलग तरह की गुलामी है।” उन्होंने अपने भाइयों विनय और सत्यप्रकाश के संघर्षों की भी मार्मिक कथा सुनाई।

समाज की ज़िम्मेदारी क्रांति का अर्थ है सत्ता परिवर्तन—not सिर्फ़ एक पार्टी की जगह दूसरी पार्टी। क्रांतिकारियों को सम्मानित करना उनकी विचारधारा को सम्मानित करना है, जिसे मौजूदा सत्ताधारी वर्ग कभी नहीं करेगा। यह समाज की ज़िम्मेदारी है कि वह क्रांतिकारी विरासत को संजोए, उनके परिवारों को सम्मान दे और सरकार को मजबूर करे कि वह क्रांतिकारियों को उनका हक़ दे।