रणवीर सिंह
दासप्रथा – सामंतवाद – पूंजीवाद – समाजवाद
पूंजीवाद में उत्पादन के साधन—जैसे ज़मीन, कारख़ाने आदि—निजी हाथों में होते हैं, और उत्पादन का उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना होता है। यह उत्पादन जनता की ज़रूरतों के लिए नहीं, बल्कि लालच के वशीभूत होकर किया जाता है। ‘शुभ लाभ’ के इसी सिद्धांत के चलते अनाज के गोदाम भरे रहते हैं, और लाखों लोग भुखमरी का शिकार होते हैं। कपड़ा मिलें चौबीसों घंटे चलती हैं, फिर भी गरीबों के पास तन ढकने को कपड़ा नहीं होता। लाखों फ्लैट बिना बिके पड़े रहते हैं, और लाखों लोग फुटपाथों या फ्लाईओवर के नीचे सोने को मजबूर हैं।
पूंजीवाद मूलतः ऐसी व्यवस्था है जो व्यापक जनता को कंगाली के गर्त में ढकेलकर चंद पूंजीपतियों के लिए धन का अंबार लगाती है। इसका उद्भव सोलहवीं शताब्दी के यूरोप में हुआ। अठारहवीं शताब्दी की औद्योगिक क्रांति ने इसे उत्पादन की प्रमुख पद्धति बना दिया। बीसवीं शताब्दी तक यह वैश्विक व्यवस्था बन चुका था—कभी राज्य द्वारा नियंत्रित, तो कभी पूरी तरह मुक्त।
1917 की रूसी समाजवादी क्रांति ने पूंजीवादी सरकारों के फैसलों पर गहरा असर डाला। जब मानवता द्वितीय विश्व युद्ध की आग में झुलस रही थी, भारत के बड़े उद्योगपतियों ने 1944–45 में ‘बॉम्बे योजना’ के रूप में स्वतंत्र भारत के आर्थिक भविष्य का खाका पेश किया। इसमें उभरते उद्योगों के संरक्षण हेतु राज्य के हस्तक्षेप, केंद्रीय योजना, आयात प्रतिबंध और सरकारी निवेश की सिफारिश की गई। कृषि उत्पादन और प्रति व्यक्ति आय को दोगुना करने, औद्योगिक क्षेत्र में पाँच गुना वृद्धि और 15 वर्षों में जीडीपी को तिगुना करने का लक्ष्य रखा गया। इन्हीं लक्ष्यों के तहत आज़ादी के बाद पंचवर्षीय योजनाएँ शुरू हुईं और योजना आयोग की स्थापना हुई।
1947 में आज़ादी के बाद भारत सरकार ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाम पर नियंत्रित औद्योगीकरण और आयात प्रतिबंधों के साथ पूंजीवाद को जारी रखा। सरकार ने उत्पादक और नियंत्रक दोनों भूमिकाएँ निभाईं—प्रमुख उद्योगों को नियंत्रित किया और लाइसेंस प्रणाली लागू की। 1956 की औद्योगिक नीति ने संचार, सिंचाई, रसायन और भारी उद्योगों में सार्वजनिक उपक्रमों की नींव रखी। 1969 में 14 बड़े निजी बैंकों और 1980 में 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ। गाँवों-कस्बों तक बैंकिंग पहुँचाई गई। सत्तर और अस्सी के दशक में सरकारी रोज़गार के व्यापक अवसर पैदा हुए और एक नया सार्वजनिक क्षेत्र उभरा।
1991 की रूसी प्रतिक्रांति के प्रभाव भारत सहित दुनिया भर की पूंजीवादी सरकारों पर साफ़ दिखे। भारत में पूंजीवाद के गहरे संकट से उबरने के लिए आर्थिक उदारीकरण, विदेशी निवेश और मुक्त बाज़ार की ओर तेज़ी से बढ़ा गया। 2001 में हिंदुस्तान जिंक, 2002 में मारुति, वीएसएनएल और इंडियन पेट्रोकेमिकल्स तथा 2021 में एयर इंडिया को निजी हाथों में सौंप दिया गया।
आज भारत गहरी आर्थिक असमानता, व्यापक बेरोज़गारी और चौतरफा भ्रष्टाचार से जूझ रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य आमजन की पहुँच से बाहर हो चुके हैं। एक ओर कुछ भारतीय दुनिया के सबसे अमीर लोगों में शामिल हैं, वहीं करोड़ों लोग दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
अब ज़रा बहुचर्चित क्रोनी पूंजीवाद की बात करें। राजनीति और उद्योग की मित्रताएँ निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा और जनहित की कीमत पर फल-फूल रही हैं। संस्थाओं पर कब्ज़ा, गुप्त राजनीतिक चंदे और कुछ उद्योगपतियों की चांदी हो रही है। राजनीति से जुड़े उद्योगपति बाज़ार में हेरफेर कर ज़मीन, स्पेक्ट्रम और कोयले जैसे संसाधनों पर कब्ज़ा कर रहे हैं। चुनावी बॉन्ड इसका ताज़ा उदाहरण हैं। भूमि आवंटन, पर्यावरण मंज़ूरी और सरकारी ठेकों में भारी हेरफेर जगजाहिर है। कुछ उद्योगपतियों का रातोंरात अमीर बनना पूंजीवाद को भी शर्मसार कर रहा है। देश की एक-तिहाई संपत्ति शीर्ष एक प्रतिशत के पास सिमट जाना पूंजीवाद की असली तस्वीर है।
अब पूंजीवाद मैदानों के बाद जंगलों और पहाड़ों को निगलने पर आमादा है। हाल की भीषण बाढ़ें चेतावनी दे रही हैं कि पहाड़ी क्षेत्रों में पूंजीवादी अतिक्रमण कितना विनाशकारी हो सकता है।
तो स्वतंत्र भारत में अठहत्तर वर्षों के पूंजीवाद के बाद हम कहाँ खड़े हैं?
- अत्यधिक गरीबी के कारण सरकार आधी आबादी को मुफ्त राशन देने को मजबूर है;
- बेरोज़गारी दर लगातार नई ऊँचाइयाँ छू रही है;
- बेतहाशा महँगाई मेहनतकश जनता के लिए सिरदर्द बनी हुई है;
- स्कूलों को बंद कर शिक्षा में कटौती की जा रही है;
- मालिकों द्वारा मज़दूरों का शोषण असहनीय हो चुका है;
- नए कारख़ाने नहीं खुल रहे, पूंजीपति अब शेयर बाज़ार का जुआ खेल रहे हैं;
- व्यापक निजीकरण से रोज़गार नष्ट हो रहे हैं;
- सेवा क्षेत्र की चमक फीकी पड़ चुकी है;
- डरावने टैरिफ और व्यापार समझौते वैश्वीकरण की समाप्ति के संकेत हैं;
- पूंजीवाद की विफलता और बढ़ता जनाक्रोश समाजवाद की अगली लहर की आहट दे रहे हैं।